आर्मेनिया-अज़रबैजान विवाद

armenia vs azerbaijan

अगर विश्व पटल की बात करें तो कई देशों का आपस में एक खास क्षेत्र को लेकर विवाद है । जैसे भारत-पाकिस्तान में कश्मीर को लेकर विवाद है उसी प्रकार इजराइल और लेबनान में भी विवाद है । आर्मेनिया-अजरबैजान विवाद नागॉर्नो-कारबाख़ क्षेत्र के लिए है । अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार विवादित क्षेत्र अजरबैजान के पास है। अभी हाल के दिनों में विवादित क्षेत्र के लिए दोनों देशों के बीच तनाव काफी बढ़ गया है ।

बीते कुछ हफ्तों में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 100 से ज्यादा लोगों की जानें गई हैं यह संख्या ज्यादा भी हो सकती है। दोनों देशों के बीच दशकों से विवाद चलता आ रहा है। हाल की घटना में आर्मेनिया ने अजरबैजान के हेलीकॉप्टर को मार कर गिरा दिया। इसके जवाब में अजरबैजान के मित्र देश तुर्की ने आर्मेनिया में घुसकर उसके विमान को मार गिराया। जिससे इन दोनों देशों के बीच तनाव काफी बढ़ गया है। गौरतलब है कि अजरबैजान एक मुस्लिम बहुल देश है जबकि आर्मेनिया में ईसाइयों की संख्या ज्यादा है। दोनों ही देश लोकतांत्रिक देश है। विघटन से पूर्व अज़रबैजान तथा आर्मेनिया दोनों ही सोवियत संघ में शामिल थे।

क्या है विवाद ?

आर्मेनिया-अज़रबैजान विवाद

आर्मेनिया-अज़रबैजान का पूरा क्षेत्र पहले सोवियत संघ में शामिल था। सोवियत संघ के विघटन के साथ 15 देश अलग हुए जिसमें आर्मेनिया तथा अज़रबैजान भी शामिल है। विवादित क्षेत्र नागॉर्नो-कारबाख़ सोवियत काल से अजरबैजान का हिस्सा रहा है। 1980 के दशक में जब सोवियत संघ का विघटन शुरू हुआ तो आर्मेनिया ने इस क्षेत्र को अपने पक्ष में करने के लिए कहा। परंतु सोवियत संघ के अधिकारियों ने इसे ठुकरा दिया। नागॉर्नो-कारबाख़ अंतरराष्ट्रीय रूप से अजरबैजान के क्षेत्र के रूप में मान्यता प्राप्त है परंतु यह क्षेत्र आर्मेनिया के अलगाववादियों के कब्जे में है। इसको लेकर अजरबैजान तथा आर्मेनिया के बीच कई बार खूनी संघर्ष हुए इसमें हजारों लोगों की जानें गई। सैकड़ों लोग विस्थापित हो गए हैं।

अजरबैजान इलाके में बना हुआ यह क्षेत्र आज आर्मेनिया के अलगाववादियों के शासन में है। आर्मेनिया के अलगाववादी इसे “Nagorno-Karabakh Autonomous Oblast” गणराज्य के रूप में घोषित कर दिया है। यहां के अलगाववादी स्वतंत्र गणराज्य के रूप में इसकी स्थापना करना चाहते हैं। जबकि आर्मेनिया तथा अज़रबैजान इस क्षेत्र को अपने पक्ष में करना चाहते हैं। आर्मेनिया राजनीतिक तथा सैन्य रूप से इस क्षेत्र का समर्थन करता है।

हाल की घटना

आर्मेनिया-अज़रबैजान विवाद

अगर हालिया घटना के बाद करें तो 27 सितंबर 2020 को आर्मेनिया के एक विमान ने अजरबैजान के एक हेलीकॉप्टर को मार गिराया। वही तुर्की जो कि मुस्लिम देशों के बीच अपना दबदबा कायम करना चाहता है तथा अजरबैजान का मित्र देश भी है उसने आर्मेनिया के एक पुराने जहाज को मारकर गिरा दिया। जिसके बाद तनाव काफी बढ़ गया। विदित हो आर्मेनिया सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (CSTO) का सदस्य है। सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन 6 पूर्व सोवियत राज्यों का संगठन है जिसको 2002 में बनाया गया ,जिसका नेतृत्व रूस करता है। इस संधि के अनुसार सदस्य देशों के ऊपर सैन्य हमला होने पर उसे सामूहिक सुरक्षा दी जाएगी। इस कारण रूस को मध्यस्था करने के लिए आना पड़ा।

वही दूसरी ओर तुर्की उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO) का सदस्य है। इसमें 29 सदस्य देश हैं। संधि के अनुसार अगर किसी भी देश में युद्ध की स्थिति बनती है तो बाकी सारे देश सामूहिक रूप से युद्ध में भाग लेंगे। कोरोना महामारी के बाद किसी भी देश की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं चल रही है। ऐसे में कोई भी युद्ध नहीं चाहेगा। वैसे भी रूस की आर्थिक स्थिति पहले से ही खराब है। वह किसी भी हालत में युद्ध नहीं चाहेगा।

विश्व का कोई भी देश किसी घटना पर अपनी राय रखने से पहले अपने फायदे तथा नुकसान के बारे में जरूर सोचता है। आज के समय में हथियार बेचना सबसे बड़ा व्यापार है। हथियार बेचने के लिए बाजार चाहिए और इस तरह की घटनाएं इस बाजार को बढ़ा दी हैं। सबसे बड़ा व्यापार पेट्रोलियम है और खाड़ी देशों के पास भरपूर मात्रा में पेट्रोलियम है। अब हम जानने की कोशिश करते हैं निकटतम देशों में इस घटना का क्या असर पड़ेगा।

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तुर्की

यह आर्मेनिया का पड़ोसी देश है तथा यह मुस्लिम देशों में अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहता है। अज़रबैजान मुस्लिम देश होने के साथ-साथ नाटो का सदस्य है इस कारण यह अजरबैजान का साथ दे रहा है। तुर्की एक हथियार संपन्न देश है और यह अजरबैजान को हथियार बेच सकता है। ईरान, सऊदी अरब, पाकिस्तान आदि देश तुर्की के साथ हैं।

तुर्की पाकिस्तान को आर्थिक मदद करता है तथा हथियार भी भेजता है इस कारण पाकिस्तान तुर्की का समर्थन करता है। पाकिस्तान तो इस कदर तुर्की का चापलूस है कि वह आर्मेनिया को देश ही नहीं मानता। वहीं कश्मीर मामले में तुर्की पाकिस्तान के साथ खड़ा रहता है। भारत ने भी सांकेतिक रूप से यह बता दिया है कि अगर कश्मीर के मामले में वह पाकिस्तान के साथ है तो नागॉर्नो-कारबाख़ के मामले में भारत आर्मेनिया के साथ होगा तथा विश्व पटल पर तुर्की द्वारा आर्मेनिया में किए गए नरसंहार का मुद्दा भी उठा सकता है।

रूस

सोवियत संघ के विघटन के पहले यह सारे देश एक ही थे। विघटन के बाद सोवियत संघ का 75% हिस्सा रूस है। वैसे तो आधिकारिक रूप से रूस निष्पक्ष देश है। दूसरे शब्दों में वह ना तो आर्मेनिया के पक्ष में है और ना ही अजरबैजान के पक्ष में। अपने आधिकारिक बयानों में रूस, आर्मेनिया तथा अज़रबैजान के बीच झड़पों में शांति तथा संयम की बात करता है। मगर कई रिपोर्ट और कई घटनाएं साबित करती है रूस आर्मेनिया के साथ है। रूस आर्मेनिया का मुख्य हथियार आपूर्तिकर्ता है तथा वह उसे ईंधन तथा रसद भी प्रदान करता है। दोनों आपस में सैन्य अभ्यास भी करते हैं।

ईरान

विश्व के तेल उत्पादक देशों में ईरान एक प्रमुख देश है। वैसे तो आधिकारिक बयानों में वह कभी भी किसी पक्ष का समर्थन नहीं करता। दोनों देशों के आपसी लड़ाई को अपने आधिकारिक बयान में ईरान हमेशा निंदा करता है तथा आपस में शांति तथा संयम बनाए रखने के बात करता है। परंतु विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार ईरान अजरबैजान के साथ हैं। सन् 1992 में ईरान ने इन दोनों देशों के बीच मध्यस्था की बात कही थी परंतु यह सफल नहीं रहा।

ईरान के उप विदेश मंत्री अब्बास अर्घाची ने 2020 में कहा कि “अजरबैजान गणराज्य की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करते हुए, ईरान मौलिक रूप से किसी भी कदम का विरोध करता है जो अज़रबैजान और आर्मेनिया के बीच संघर्ष को बढ़ावा देगा।”

अमेरिका

अमेरिका एक विकसित अर्थव्यवस्था वाला देश है। वह काफी मात्रा में हथियार दूसरे देशों को बेचता है। इसे हथियार बेचने के लिए बाजार की जरूरत है। यह आर्मेनिया तथा अज़रबैजान दोनों को ही हथियार देता है। अमेरिका अज़रबैजान गणराज्य के क्षेत्रीय अखंडता का समर्थन करता है परंतु उसने कुछ ऐसी नीतियां बनाई है जो आर्मेनिया के तार्किक नीतियों के समर्थन में है। कुछ रिपोर्टों की माने तो अमेरिका ने कुछ ऐसी नीतियां बनाई हैं जो तेल कंपनियों को सहायता प्रदान करती है। इसका मतलब साफ है कि अमेरिका दोनों ही देश को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करता है ताकि उसका बाजार बना रहे। अमेरिका ने अजरबैजान को सैन्य सहायता भी दी है।

भारत

भारत एक शांतिप्रिय देश है। यह सभी देशों से मित्रता का संबंध रखना चाहता है। इसकी अर्थव्यवस्था विकासशील है। भारत अपने हथियारों को इन दोनों देशों को बेच सकता है। अज़रबैजान से यह पेट्रोलियम प्राप्त कर सकता है। तुर्की से पेट्रोलियम प्राप्त करता है। ईरान भारत का प्रमुख तेल निर्यातक देश है। इसलिए भारत सभी देशों से अपने संबंध को बेहतर बनाकर रखता है।

परंतु अगर किसी देश ने अखंडता को भंग करने की कोशिश की तो मुंह तोड़ जवाब भी देना जानता है। अगर हम हाल की घटनाओं का जिक्र करें तो तुर्की कश्मीर के मामले में पाकिस्तान का साथ दिया। वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान भी तुर्की के साथ है। भारत ने सांकेतिक रूप से तुर्की को बता दिया है कि आगे भी अगर उसने ऐसा करना जारी रखा तो भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आर्मेनिया नरसंहार और साइप्रस का मामला उठा सकता है और तुर्की को बेनकाब कर सकता है।

युद्ध-विराम की पहल

मई 1994 में दोनों देशों ने युद्धविराम पर हस्ताक्षर किए गए थे। रूस ,अमेरिका और फ्रांस द्वारा इसकी मध्यस्थता की गई थी। परन्तु अजरबैजान ने बार-बार रूस, अमेरिका, और फ्रांस पर अर्मेनियाई समर्थक होने का आरोप लगाया है। सन्1996 में, जब फ्रांस को समूह की सह-अध्यक्षता के लिए चुना गया था, तो अजरबैजान ने निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए कहा क्योंकि फ्रांस को अर्मेनियाई समर्थक के रूप में माना जाता था। अजरबैजान ने अमेरिका और फ्रांस पर कई बार पक्षपात का आरोप लगाया है।

सारांश

इस पोस्ट में हमने आर्मेनिया-अज़रबैजान विवाद के विभिन्न पहलुओं को देखा।

इस पोस्ट को अगर आपने ध्यान से पढ़ा होगा तो आप समझ पाए होंगे विश्व के बहुत सारे देश यह नहीं चाहते हैं कि इस तरह के विवाद खत्म हों ताकि उनका अपना स्वार्थ सिद्ध हो सके।

पुरे विश्व में इस तरह के बहुत सारे विवाद हैं । इस तरह के सारे विवाद किसी भी स्थिति में मानव सभ्यता के लिए ठीक नहीं हैं।

पुरे विश्व के लिए ये सब घटनायें चिंता का विषय है।

इनका समाधान होना बहुत ही जरुरी है।

इस तरह के विवाद पूरे विश्व को युद्ध की ओर अग्रसर कर सकता है।

इस सम्बन्ध में आपकी क्या राय है? हमें कमेंट करके अवश्य अवगत कराएं।

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